Thursday, April 7, 2016

चलो करें फिर नई शुरुआत

अब आएगा मजा... फिर कलमतोड़।

Wednesday, May 11, 2011

A Simple Observation....

I watched a movie today named “Spanglish”, obviously because of my intimacy with Spanish language. And that provoked me to write this.


I am not going to write the movie review or something which you expect. It’s just a simple observation about the relationships in reference to Latin American (Spanish speaking countries), western (Specially U.S.) and Asian countries specially India. This is so similar to our country India.


We must know that in western countries, there is not much value given to relations, be it parent-child, husband-wife, girlfriend-boyfriend or any other. There, much focus is given to oneself and one’s priorities. If you are not happy with someone or something, you have every right to leave that person or thing behind and move on. And that is considered their right, rather culturally approved right. You don’t explore much about the possibilities of mending the ways to work that relationship again. You just know a culturally tested formula i.e. leave the person or thing you are bothered about. And you follow it.


But in India you rather work on that thing and find the alternatives to remain in the same relationship. Leaving a relationship is the last thing in one’s mind.


It’s very normal in Western countries to leave people alone when they don’t feel good or upset. But in India if you say “Just leave me alone for sometime”, you are considered mad or someone out of the mind. Also in some cases peopled might label you a maniac or a person worth getting into an asylum.


In the last scene of the movie when Latin American lady’s daughter asks her to leave her alone, she responds “there is no space between us”.


A similarity to our culture swept into my mind with this phrase and I was delighted to pause for a while thinking did I ever use that phrase? Till date I have not and wish the same as well.


Anoop Maurya

Thursday, April 14, 2011

अन्ना के बहाने

सोचा था कि लिखने-पढ़ने का कोई फ़ायदा नहीं है, 'मगर दिल है कि मानता नहीं.' भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जन लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद कुछ लिखने को मज़बूर हूँ.
दरअसल, बहुत पहले इसी ब्लॉग पर एक पोस्ट की थी-  उस दिन मैं बहुत रोया. पोस्ट हरियाणा के चर्चित रुचिका गिहरोत्रा मामले को लेकर थी, उस मामले में कोई उत्सव नाम के युवक ने डीजीपी एसपीएस राठोर के गाल पर छुरा घोंप दिया था. मैंने लिखा था कि इस देश में युवा क्रांति को कोई नहीं रोक सकता. तब सात समंदर पार रह रहे मेरे बहुत करीबी दोस्त आशीष ने कमेन्ट किया था कि आप जज्बाती हो गए हैं और मैं मन मसोसकर चुप रह गया था. तब मुझे लगा था कि वह भी एक किस्म का भ्रष्टाचार है, जिसमें एक दबंग किस्म का पुलिस अधिकारी अपने धन-बल के दम पर दम भर रहा है और एक युवा उसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहा.
बहरहाल, मैं मुद्दे पर लौटता हूँ. अन्ना हजारे ने जंतर-मंतर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अनशन किया तो उनके सपोर्ट में उतरे लोगों में आधे से ज़्यादा युवा थे और युवा ऐसे नहीं जो निठल्ले या आवारा किस्म के रहे हों. उनमें ज़्यादातर उच्च शिक्षा प्राप्त थे. इतना ही नहीं, जब मिस्र में हुस्ने मुबारक़ के खिलाफ़ वहां जन क्रांति हुई, तो मैंने फेसबुक पर नोट्स लिखा कि भारत में मिस्र क्यों नहीं हो सकता? मगर मेरे दोस्त को तब भी हैरानी हुई. अब अन्ना का आंदोलन सबके सामने है. यहाँ सवाल किया जा सकता है कि हासिल क्या हुआ? मगर ये काफ़ी नहीं कि देश के कोने-कोने में इस आंदोलन को अप्रत्याशित जन-समर्थन मिला और उसमें भी युवकों की बड़ी फौज़ थी.
भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अन्ना के आंदोलन को लेकर तमाम तरह के तर्क-कुतर्क हैं और आए दिन वो सामने भी आ रहे हैं. जो लोग इसे वाहियात बता रहे हैं, उनमें अधिकाँश राजनेता हैं. नाम देखिए- दिग्विजय सिंह, कपिल सिब्बल, सलमान ख़ुर्शीद, एच डी कुमारस्वामी वगैरह-वगैरह... दिग्विजय ने तो चुनौती भी दे डाली कि अन्ना चुनाव जीतकर दिखाएँ और इनके पास आंदोलन करने के लिए धन कहाँ से आता है? अब इस चोट्टे दिग्विजय को कौन बताए कि 73 साल का ये जवान एक झोला लेकर चलता है और जहाँ भी अनशन में में बैठता है, दस-पांच रूपए से ही उसका झोला भर जाता है. उसे आदत ही नहीं है शिक्षाकर्मियों की भर्ती में करोड़ों डकार लेने की. समझ में नहीं आता कि इस तरह के हाईकमान के चमचों से देश की राजनीति अपना दामन कब छुड़ा पाएगी?
लिखने-कहने को बहुत सारी बातें हैं, मगर सिर्फ़ इतना ही कि जिन आरामतलबियों को अब भी कोई शक है, वो 15 अगस्त तक का इंतज़ार करें. एक बात और की इस विधेयक के पास हो जाने से इस देश से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा, संभव नहीं है. इसके लिए सबको अपने गिरेबान में झांकना होगा.

Tuesday, November 2, 2010

सड़कें ख़ाली करो कि ओबामा आते हैं!

क्यारियां सजाई जा रही हैं, पार्क हरे किए जा रहे हैं 
गलियाँ बुहारी जा रही हैं दिन में चार बार... 
और हमसे कहा गया- सड़कें ख़ाली करो कि ओबामा आते हैं!
कहा गया कि शोर मत करना उस दरमियां
जब वे हों दिल्ली में...
हमसे कहा गया कि दो दिन के लिए तो घर से बहार भी मत निकलना
हो सके तो रोक लेना टट्टी-पिसाप भी
बगल वाले मंदिर में न बजाए कोई घंटियाँ
मस्जिद में अजान भी न पढ़े कोई...
रिक्शा और ताँगे वालों को तो ख़ास हिदायत है-
न निकलना दिन में धंधा करने- त्यौहार के मौसम में भी
हो सके तो चले जाओ दो-चार के लिए दिन दिल्ली छोड़ के कहीं और
कहा गया हम सब से कि सभ्य रहना दो- चार दिन के लिए
क्योंकि आ रहा है दुनिया का सबसे सभ्य आदमी
यानी अमेरिका का राष्ट्रपति बराक ओबामा!

Monday, October 4, 2010

तीसरे दिन की रामलीला

नवरात्र लगते ही शुरू हुईं रामलीलाएं तमाम
मित्र का बारंबार आग्रह
हम भी पहुंचे देखने
खूब भीड़भाड़, चहल-पहल
हर आयु-वर्ग के लोग पहुंचे थे-आज-
तीसरा दिन था-
मंचन था राम वनवास।

पहला दृश्य:
पत्नी सीता को समझा रहे थे प्रभु श्रीराम-
बोले- 'सीते! तुम मत कष्ट सहो...
तुम मत जाओ मेरे साथ' प्रत्युत्तर-
'मैंने तो पहले ही कर लिया है निर्णय
नहीं जाऊंगी आपके साथ वन को
आप ठहरे मर्यादापुरुषोत्तम, आज्ञाकारी
निभाओ वचन पिता का
मैं क्यों कर जाऊं...
मेरे वश की नहीं यह तपस्या
जंगल भी कोई रहने की जगह है?'
दर्शक हतप्रभ, संयोजक परेशान
आखिर हो क्या रहा है ये
सीता को समझाया गया-
'तुम्हारे वन गये बगैर कैसे होगा तुम्हारा हरण
और कैसे होगा राम-रावण युद्ध, रावण मरण
यह नाटक बंद करो और फौरन जाओ वन राम के साथ।'
जैसे-तैसे तैयार हुईं सीता
अब लक्ष्मण की न-नुकुर
आखिरकार समझा लिया गया उन्हें भी- तर्कों के सहारे।
निकल पड़े वन को तीनों
माताएं रो-रो कर हैरान तीनों
कैकेई को भी पहली बार रोते देखा इस रामलीला में।

दूसरा दृश्य:
गंगा तट पर बैठा था केवट निराश
आज मंदा था धंधा
देखते ही लपका-
'आओ जी, दो मिनट में पहुंचा देता हूं उस पार'
और शीघ्र ही तीनों पहुंचे गंगा पार
केवट से व्यथा सुनाई राम ने
मगर अड़ गया वह भी-
'माफ करो प्रभु
मेरे भी हैं बाल-बच्चे
सबका भरना पड़ता है पेट मुझे ही
साग-सब्जी भी ले जाना है शाम को
...फिर क्यों मूर्ख बनाते हो हम जैसों को
पढ़े-लिखे नहीं, इसलिए?
सब जानता हूं मैं
राजकुमार हो अयोध्या के
सदियों की कमाई रखी है खजाने में
मेरी मजदूरी के लिए इतनी मजबूरी!
फिर कोई खैरात तो नहीं मांगता...
जैसे भी हो, आप ही निकालो रास्ता'
...और अंत में देनी पड़ी अंगूठी सीता की ही
(दर्शकों की गालियां केवट को)
इस बार निषाद भी नहीं पहुंचा आवभगत करने राम की
दिन थे खेती-किसानी के।
किसी तरह रहने लगे चित्रकूट में
राम-लक्ष्मण-सीता पर्णकुटी में।

दृश्य तीन :
कुटिया पर पहुंची सूर्पणखा
विवाह का प्रस्ताव और राम-लक्ष्मण की समझाइश
बात यहां तक पहुंची कि काट ली जाय नाक इसकी
क्रोधित लक्ष्मण तैयार, मगर....
तभी आ धमाका लंकेश यानी रावण
बिना पोशाक के ही मंच पर
लक्ष्मण को लगाई ललकार
'बंद कर यह अनर्थ मूर्ख बालक
मैंने तय कर लिया है
न तुम काटो सूर्पणखा की नाक
न मैं करूंगा सीता का हरण
अब बंद होना चाहिए प्रतिशोध का यह अत्याचार...'
पूरे पंडाल में सन्नाटा, दर्शकों में खामोशी
और संयोजक तो पसीना-पसीना
कोसने लगा रावण को-
'क्यो आ धमके तुम मंच पर समय से पहले?'
रावण के इरादे भी थे खतरनाक
अड़ गया संयोजक से ही-
'सब तुम्हीं लोग कराते हो पैसे की खातिर-
कब तक... आखिर कब तक कटती रहेगी सूपर्णखा की नाक
और होता रहेगा सीता का हरण?'
मंच का माहौल था गरम
दर्शक उठ-उठकर लगे थे जाने
उधर बढ़ती ही जा रही थी रावण संयोजक की बहस
तभी राम ने किया बीच-बचाव
दर्शकों को संबोधित करके बोले
'भद्र जनो! हमें माफ करें
हमारा भी ध्येय नहीं है खून-खराबा
रावण भाई चेत गए हैं
हम लक्ष्मण को भी समझा लेंगे
...तब तक दो-चार लोग ही बचे थे दर्शक दीर्घा में
सब लौट रहे थे घर को
गाली देते राम-रावण को
हम भी लौट आए कुछ सोचते हुए।

Saturday, September 18, 2010

सठिया गए हैं शिवराज सिंह

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को सुर्खियों में बने रहने का रोग लग गया है। हफ्ते-दस दिन में  कुछ न कुछ ऐसा उगल बैठते हैं, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर छा जाते हैं और फिर जब अच्छी-खासी छीछा-लेदर हो जाती है तो फिर या तो माफी मांगते हैं या फिर कहते हैं कि मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। फिलहाल, कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर अपनी भड़ास निकाली है शिवराज ने। उन्होंने कॉमनवेल्थ से जुड़ी मशाल क्वीन बैटन का बहिष्कार किया है और न केवल मशाल का बहिष्कार किया, उन्होंने तो यहां तक कहा कि मेरा तो मन कर रहा था कि इसकी राज्य में एन्ट्री ही न होने दूं। चुनाव हारे मणिशंकर ऐय्यर को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया तो इन खेलों के संबंध में उनकी भड़ास तो समझ में आती है, मगर शिवराज किन वजहों से इसका विरोध कर रहे हैं, समझ में नहीं आता। दरअसल, पहली बार पांच साल में तीन मुख्यमंत्री (भाजपा के) देख चुके मध्यप्रदेश में शिवराज दोबारा मुख्यमंत्री बने तो उन्हें लगा कि सारा किया-धरा उनका है, इसीलिए जनता ने दोबारा सत्ता की चाबी सौंपी है, सो जो भी मन में आएगा, बोलते रहेंगे। यहां शिवराज भूल जाते हैं कि किन्हीं वजहों से जनता अगर उन्हें सत्ता सौंपती है तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि वे तानाशाह हो जाएंगे, जैसा कि आजकल उनका रवैया है। अब यहां थोड़ी चर्चा उन वजहों की भी, जिसके बूते वे दोबारा मुख्यमंत्री बने। असल में पहले कार्यकाल के बाद जनता में शिवराज की छवि विकास पुरुष की बन गई। कुछ संयोग ने भी उनका साथ दिया। हुआ यूं कि 10 साल के दिग्विजय सिंह के लूटराज के बाद जब भाजपा की सरकार बनी तो उसी वक्त केंद्र सरकार की राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की गई। गांव-गांव सड़कें बनीं, तालाब बने और थोक के भाव वृक्षारोपण का काम हुआ। इस कथित विकास में स्थानीय मजदूरों को रोजगार मिला और गांवों की सूरत कुछ-कुछ बदली नजर आने लगी। यह बात अलग है कि नरेगा-मनरेगा में सरपंच-सेकेट्रियों ने इतना घर भर लिया है कि उनकी दो पीढ़ी आलीशान तरीके से न सही तो सामान्य तरीके से बैठे-बैठे खा सकती है। इस विकास कार्य में जिन मजदूरों को काम मिला, वे शिवराज को विकास पुरुष तो कहने ही लगे, अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे और छुटभैये नेता लोगों ने भी उनकी जमकर तारीफ की और इसका असर यह हुआ कि शिवराज के नेतृत्व में दोबारा भाजपा ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया। सच्चाई तो यह है कि शिवराज की विकास पुरुष वाली छवि का आकलन करना हो तो राज्य के किसी भी जिले चले जाएं, वही सब देखने को मिलेगा जो 20 साल पहले था। अलबत्ता, जर्जर पुल, सरकारी इमारतें, बिजली-पानी की किल्लत और सड़ांध मारती गंदी बस्तियों में जरूर इजाफा हुआ है।
फिर से मौजूदा प्रसंग में लौटें तो कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर शिवराज की बयानबाजी शर्मनाक है। एक राज्य के मुखिया होने के नाते उनसे इस तरह की उम्मीद नहीं थी, मगर कोई सठिया जाए तो उसके लिए कोई कर भी क्या सकता है? कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़ी अनियमितताओं की आलोचना हो सकती है और होनी चाहिए, मगर अब जबकि 15 दिन बाकी रह गए हैं, शिवराज इस बालसुलभ हठ से क्या जाहिर करना चाहते हैं, यह वे जानें या उनके सलाहकार। ये खेल देश की प्रतिष्ठा से जुड़े हैं और जैस-तैसे निपट जाएं, अब हर कोई यही चाहता है। हां, अगर शिवराज का कोई व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह (जो कि एक सार्वजनिक फिगर के संदर्भ में मान्य नहीं है) है तो उनकी यह सोच उन्हें मुबारक हो। वैसे शिवराज को एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि खेल मंत्री एमएस गिल साहब बहुत पहले कह चुके हैं कि इस तरह के आयोजन बेटी के ब्याह की तरह होते हैं, जो बगैर तैयारी के भी ऐन वक्त पर निबटा लिए जाते हैं।

Sunday, September 12, 2010

वेल डन दिग्गी


जमाना हो गया मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मुखारबिंद से शुभ बातें सुने। हाल-फिलहाल उन्होंने पते की बात कही है। दिग्विजय सिंह ने कहा है कि मानव संसाधन विकास मंत्री को उच्च शिक्षा में सुधार करने की कोशिशों के बजाय प्राथमिक स्तर की शिक्षा में सुधार की तरफ ध्यान देना चाहिए। गौरतलब है कि कपिल सिब्बल पर इन दिनों उच्च शिक्षा में कायापलट का भूत सवार है। कभी वे कहते हैं कि देश में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाए जाएंगे तो कभी कहते हैं कि आईआईटी में भी डॉक्टरी की तकनीकी शिक्षा दी जाएगी। कपिल सिब्बल का तर्क है कि चूंकि, अपने मुल्क की पचास फीसदी से अधिक आबादी युवा है और इनमें से अधिकांश युवा उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं कर पाते, इसलिए और ज्यादा विश्वविद्यालय खोले जाने की जरूरत है। सिब्बल साहब का तो यहां तक कहना है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भी अपने यहां फ्रेंचाइज़ी खोलने दिया जाएगा और ऐसा करने से हार्वर्ड, कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड जैसे तथाकथित दुनिया के नामी विश्वविद्यालयों की पढ़ाई घर बैठे होगी यानी भारत में। इसके लिए सिब्बल ने सदन में बकायदा अधिनियम भी पारित करवा लिया है। 

इसके उलट कांग्रेस के ही तथाकथित वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह प्राथमिक शिक्षा में सुधार की बात कह रहे हैं। दिग्गी राजा की बात सौ फीसदी सही है कि प्राथमिक शिक्षा में सुधार के बगैर उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की कल्पना बेमानी है। दुनिया जानती है और अपने देश के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि दूरदराज के प्राइमरी स्कूलों के 40 फीसदी बच्चे माध्यमिक स्तर तक नहीं पहुंच पाते और इसी तरह 50 फीसदी छात्र माध्यमिक स्तर से कॉलेज नहीं पहुंच पाते। इसकी बड़ी वजह पढऩे-लिखने के बावजूद रोजगार की समस्या है तो आंशिक वजह आर्थिक है। कई चाहकर भी पढ़ नहीं सकते क्योंकि उन्हें बाप-दादों के साथ काम में हाथ बंटाना होता है। ऐसे में हमें दिग्विजय सिंह की बातों में दम दिखता है, मगर उनका यह बयान वास्तविक चिंता कम, सियासी ज्यादा लगता है। आखिर ये वही दिग्विजय ही हैं, जिन्होंने अपने 10 साल के मुख्यमंत्रित्वकाल में प्राथमिक शिक्षा का सबसे अधिक कवाड़ा किया। ठेके पर मास्टर रखे। अपने पहले कार्यकाल में दिग्गी राजा ने शिक्षा कर्मी की जमकर नियुक्ति की थी और इन्हीं यशस्वी शिक्षकों और उनके नाते-रिश्तेदारों के दम पर दोबारा मुख्यमंत्री बने थे। फिर इन शिक्षाकर्मियों की हालत भिक्षाकर्मियों जैसी हो गई और तीसरी बार राघोगढ़ के इस राजकुमार को सत्ता से रुखसत होना पड़ा था। यहां बता दूं कि शिक्षाकर्मियों को नियुक्ति के समय 50 हजार से लेकर एक लाख तक की घूस देनी पड़ी थी और इनके परमानेंट होने के कोई चांस नहीं थे। पूरे प्रदेश से आए दिन भोपाल में धरना-प्रदर्शन करने जाते थे भाई लोग यानी कुल मिलाकर सड़कछाप हो गए थे। यहां एक दिलचस्प तथ्य है कि दिग्गी राजा के समय 500 रुपये प्रति माह में गुरुजीÓयों की भर्ती हुई थी। इन्हें गांव और वार्ड के स्तर पर बच्चों को पढ़ाना होता था। बाद में शैक्षिक प्रोग्रेस रिपोर्ट सरपंच को देनी होती थी। एक वाकया सुनकर तो आप लोग माथा पीट लेंगे कि कोटे से बनी एक महिला सरपंच ने पंचायत की शैक्षिक प्रोग्रेस रिपोर्ट विकास अधिकारी को भेजी और रिपोर्ट के नीचे सील के साथ सरपंच साहिबा का अंगूठा लगा हुआ था। यहां बता दूं कि प्रदेश में इस तरह का यह इकलौता मामला नहीं था, यह तो मात्र बानगी है। 
बहरहाल, सियासी ही सही, दिग्विजय सिंह के विचारों को तरजीह दी जानी चाहिए। भगवा आतंकवाद... हिंदू आतंकवाद... मुस्लिम तुष्टीकरण और धर्मनिरपेक्षता के आडंबर से हटकर पहली बार उन्होंने अपने पढ़े-लिखे होने का प्रमाण जो दिया है।

Tuesday, September 7, 2010

सुरिजभान काकू आ रहा हूं आपसे मिलने

बीते दिनों उत्तराखंड के लोककवि और जनांदोलनों से जुड़े गिरीश तिवाड़ी उर्फ गिरदा की याद में आयोजित सभा में मैं भी शरीक हुआ। उत्तराखंड बनने से पहले और बाद के दिनों में गिरदा की सक्रिय भागीदारी रही है, चाहे वह चिपको आंदोलन हो, चाहे वह नदी बचाओ आंदोलन हो या फिर उत्तराखंड निर्माण आंदोलन। गिरदा के जीवन-फलक को समझने के बाद मुझे अहसास हुआ कि किसी लोकल शख्श की क्या-क्या तमन्नाएं होती हैं, जीवनसंघर्ष में किस तरह से वह सामाजिक उत्थान के सपने देखता है।
एकाध सामाजिक संगठनों को छोड़कर जीते जी गिरदा के योगदान को किसी ने सलाम नहीं किया। अब तमाम तथाकथित बड़े साहित्यकार, लेखक मसि-कागद खर्च कर रहे हैं।
दरअसल, वाचिक परंपरा वाले इस मुल्क में लोककवियों और लोक कलाकारों की जीते जी कोई पूछ-परख नहीं होती, जबकि इनका आलोक तथाकथित किसी भी भद्र कवि-कलाकार से कम नहीं होता। दूर ग्रामीण अंचलों में ये गुमनामी की जिंदगी जी रहे होते हैं। बानगी के तौर पर अपने सुरिजभान काकू को लीजिए। सुरिजभान काकू का मूल नाम है सूर्यभान सिंह। जैसा कि बोलियों के साथ होता है, सूर्यभान का देशज बन गया सुरिजभान। जिस तरह से शहरों में हर चालीस पार शख्स को लोग अंकल कहने लगते हैं, उसी तरह गांवों में बुजुर्ग लोगों को लोगबाग काका कहते हैं, चाहे वह किसी जाति-धर्म का हो। काका से काकू भी वैसे ही बना, जैसे चाचा से चाचू या मामा से मामू। 
बहरहाल, सुरिजभान काकू पढ़े बिल्कुल नहीं हैं, मगर लढ़े बहुत हैं। हालांकि अब अपना दस्तखत (उनकी बोली में दसकत) हिंदी और अंगरेजी दोनों में कर लेते हैं। शायद कमल, मटक, खटमल.... (पहली-दूसरी जमा में पढऩे वाले बच्चों की तरह) पढ़ लेते हैं क्योंकि बहुत दिनों से उनकी दिली तमन्ना थी- 'लाला मैं एतना पढ़ैं चाहत हौं कि रमायन पढ़ लेवं' (बेटे मैं इतना पढऩा चाहता हूं कि रामायण पढ़ सकूं)। रामायण यानी तुलसी की रामचरित मानस...।
सतना क्षेत्र में जो बोली बोली जाती है, वह विशुद्ध बघेली नहीं बोली जाती, उसमें बघेली और बुंदेली का घालमेल है और यही बोली है अपने सुरिजभान काकू की। इंदिरा गांधी के समय की इमरजेंसी से लेकर हाल-फिलहाल में केंद्र की मनमोहन और राज्य की शिवराज सरकार के कामकाज पर जो दोहे-कुंडलिया रचते हैं, मजाल है कि स्थापित कवि उन गहराइयों तक पहुंचें !! सरकारी कामकाज के झोल की बात हो, सरकारी उपलब्धियों की बात हो, लालफीताशाही हो, पंचायत के पंच-सरपंचों के चाल-चलन और कामकाज की बात हो, सब एक सांस में सुना देते हैं। क्या दोहे गढ़े थे सरकार की नरेगा योजना और शिक्षाकर्मी योजना पर!! मेरा साल में एकाध बार ही गांव जाना होता है और कहीं अगर सुरिजभान काकू से मुलाकात हो गई तो पूरे साल भर के राजनीतिक-सामाजिक घटनाक्रम की जानकारी उनके दोहों-कुंडलियों के जरिए मिल जाती है। अपने काकू को रागों की भी गहरी समझ है। पारंपरिक सोहर-बिआह से लेकर कजरी, दादरा और टप्पा तक और अनूप जलोटा के भजनों से लेकर मुंबइया धुनों की थिरकन उनके लोकगीतों के अंग हैं। सच तो यह है कि सुरिजभान काकू क्या हैं, इस शब्दों मात्र में कहा ही नहीं जा सकता। अपुन को लगता है उन्हें जानने के लिए एक बार उनसे मिलना मांगता है। आप उनसे मिलिए, उनकी जानकारी का कोई विषय बताइए, पांच मिनट उन्हें समय दीजिए और वहीं खड़े-खड़े उस घटना-परिघटना या संबंधित विषय पर दोहा-गीत सुन लीजिए। अब तो काकू के घर भी ट्रैक्टर आ गया है, वरना आज से चार-पांच साल पहले जब अपनी बैलगाड़ी में होते थे तो उनकी स्वरचित फाग और बिरहा सुनते ही बनते थे। चौका-बासन, चना-चबेना, भाजी-रोटी, खेत-खलिहान सब कुछ आपको सुरिजभान काकू की कविता में मिलेगा। 
...मैं अब यहां रुकना चाहता हूं क्योंकि अपने काकू से संबंधित जो भी स्मृतियां हैं, उन्हें याद करते वक्त भावुक हो जाता हूं। बहरहाल, काकू नवंबर में आ रहा हूं, आपसे मिलूंगा जरूर। पंचायत में क्या-क्य हुआ या हो रहा है, सब कुछ मुझे जानकारी चाहिए।
(यहां एक विनम्र निवेदन करना चाहता हूं कि इस तरह की प्रतिभाएं ग्रामीण अंचलों में बहुतायत हैं, उन्हें सहेजने की जरूरत है)

Wednesday, August 18, 2010

love is not an object but a process

As usual when I woke up at 1.30pm for my daily shift, on Aug 17th, 2010, I felt a tinge of freshness because of a good sleep. My watch had just showed me 1.30. I rushed to lavatory and was barely done when I heard my mobile ringing. It was a call from the cab driver at 2.10 to suggest me to board the cab in the next half an hour by 3pm. I did some mental calculation and found out that there was something wrong, either with the driver or with my watch.
I preferred to check the later first as it was easier and was in my vicinity. Unfortunately my watch betrayed me and it was late by 20 minutes. Nevertheless, I did manage to overcome those 20 minutes and embarked on my almost 35 miles journey without fail on time. Nothing worthwhile happened in the office to mention here.
Except one thing. When I checked my watch at 9pm, it was dead, an expected outcome. I was un-easy and perturbed the whole night (I work night-shift) because of that. Every other second my focus was my watch and I was contemplating over my schedule and was planning and cancelling out different time slots to get my watch repaired on a certain day.
Next day was a perfunctory and a humdrum daily routine. Again I had got the call from the cab-driver to board the cab by 3.00pm.
But it was not a usual departure like every day.
I was in a fix. It was choosing either the deep blue see or the devil. I thought of wearing my watch and then abdicated the idea. But again I thought why I should miss my watch, my love. At first I thought, since it serves no purpose, so let it be where it is (it was at my bed lying alone and must be missing me). Then I thought it has been a true companion in my thick and thin days without complains for the last 7 years.
So I conceived of a notion typically associated with the mothers and teenage lovers, when they refuse to leave their wards (mothers, their babies and lovers, their beloved ones). And I relinquished the idea of being callous to my watch and extended my support during its bad days, which it deserved. I would be lying if I do not mention that being generous to my watch was my innermost feeling. It has to do more with the emotions than with logic. As a true friend I picked it up cordially and placed it on my wrist with élan. I don’t know what happened after that but I really felt a lot more relieved and content. As an inveterate teenager who keeps on giving a cursory look to every girl/boy who passes by, I looked at my watch many times the same way!!!
But it never failed to show its consistency of being dead! It never took trouble to greet me with its movement. and it was stuck at 9 o’ clock. At 9.10 pm I decided to go for my supper, my watch took me by surprise as it was back from the coma and was moving its limbs which I found hard to believe. I thought it was just a momentary act which will vanish in thin air in a short while. Thinking that I forced that thought out of my conscience.
But I was destined to prove wrong.
Hours passed by, I was over with my work and had to leave for the day. It was early morning 2a.m (19th Aug).
I checked my watch; lo and behold it was exactly right!!!
I could not believe my eyes and was again under the impression that it must be my hallucination and accused my blind love for it evoking that kind of response. I decided not to budge from the fact that my watch was long dead and I reprimanded myself for being so un-realistic.
Again hours passed by, I was excessively concentrated on my mobile phone and book rather than on my watch when I was again taken aback by my watch. Some anecdotes from the book which I was reading at that point were sweeping through my mind but my watch was recurrent in the sub-conscious. My love for it refused to cow down when I gave nth look to it with a deep sigh and silent smile.
To my astonishment it was matching my mobile watch, the other watches and was up-to-date with its usual pace!!! It had started working properly.
Within 24 hours I had gained back the love and confidence for my watch. This strengthened and cemented my love for it. I am sure; this incident will be etched out in my memory lanes for once and all.
My watch taught me two things.
First if you really love something or somebody, you just need to shower the love and need not expect the same in return. Your act will be a boomerang and you will be surely rewarded for the same.
Second important thing; affection and love should not be devoted only to the people but it should also be spread across to the in-animated objects to feel content and satisfied. It would also avoid reclusiveness. Nothing happens without reaction which is also supported by Newton’s 2nd law of action-reaction. Every activity will yield some kind of return no matter if it is as per your expectation or contrary to that.
I loved (and still love it profoundly) my watch and was rewarded for showing the faith in that(I did not leave my watch when it was not working).
Now as a matter of fact I have chosen an unconditional and everlasting love and have promised un-barter system for my watch and for all other things and people.
For me love is not an object but a process. I just want to immerse in it. While I was writing this, I have been looking at my watch over and over again. And oops I realized it’s time to bade good bye
-Anoop Maurya

Sunday, August 15, 2010

ऑनर किलिंग पर 'मुंबइया आक्रोश'

मुद्दा तो है... बल्कि कहें कि यह गंभीर मुद्दा है। मुद्दा न होता तो भारतीय संसद में इसकी गूंज न सुनाई देती। अब इस पर लगाम लगाने के लिए सरकार कानून बनाने के बारे में सोच रही है। यह बात अलग है कि खाप पंचायतें और इस तरह के सामाजिक संगठन इसे जायज मानते हैं और इस पर किसी भी तरह के नए कानून के खिलाफ हैं।

ऑनर किंलिंग समाज के लिए ऐसा कलंक बनता जा रहा है कि इस पर चिंता स्वाभाविक है। शायद इसीलिए इज्जत के नाम पर प्यार करने वालों के कत्ल का मामला मीडिया और राजनीतिक बहसों के बाद अब फिल्मों तक पहुंच गया है। अब तक हंसी-ठिठोली वाली फिल्में बनाने के लिए मशहूर प्रियदर्शन ने इस ज्वलंत मुद्दे पर आक्रोश फिल्म बना डाली है। राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता प्रियदर्शन की आक्रोश अंतरजातीय पे्रम पर आधारित है। बिहार की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में ऑनर किलिंग के इर्द-गिर्द एक पे्रम कहानी बुनी गई है। अजय देवगन स्टारर इस फिल्म के प्रोमो रिलीज हो चुके हैं और यह फिल्म एक अक्तूबर को सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी।

फिल्म के प्रोमो के शुरू में ही बताया जाता है कि 1947 में ऑनर किलिंग के नाम पर 1114 हत्याएं हुई थीं और इस वर्ष यानी 2010 में अब तक 3235 हत्याएं हो चुकी हैं। फिल्म के प्रोमो में सवाल किया जाता है कि क्या हमें आजादी मिल गई? भारतीय समाज में प्रतिष्ठा किसी भी दूसरी वस्तु या इनसान से बड़ी है। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है प्रतिष्ठा के नाम पर होने वाली हत्याएं। अगर प्रेम विवाह या अंतरजातीय विवाह की आखिरी परिणति हत्या या समाज निकाला है तो फिल्म में किया गया सवाल निश्चय ही बड़ा सवाल है और मुमकिन है कि सवाल खड़ा करने वालाई भी जुल्म का शिकार बने।

दरअसल, भारतीय समाज की पहचान सहनशील और शांतिप्रिय के तौर पर है। हर जुल्म और अपमान को हंसकर सह लेना हमारी खासियत रही है। ऐसा नहीं है कि खुद पर या किसी और पर जुल्म होते देख हममें से किसी को गुस्सा या खीझ नहीं होती। सबको होती है, मगर कभी आदतन तो कभी सामाजिक भय के कारण हम चुप्पी साध लेते हैं। बिरले लोग होते हैं, जो प्रतिकार करने का साहस जुटा पाते हैं या अपना गुस्सा आक्रोश में बदल पाते हैं।

गौरतलब है कि इस आक्रोश से पहले सन 1980 में भी इसी नाम से एक फिल्म आई थी। गोविंद निहिलानी की उस फिल्म में ताजा ताजा बस यही समझ में आता है कि आक्रोश की अपनी असल आवाज उसके सन्नाटे में दबी होती है, मगर अक्सर इस चुप्पी के पीछे एक आक्रोश दबा होता है और वह इतना खामोश रहता है कि उसका होना न होना बनकर समाप्त हो जाता है। आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार पर बनी उस आक्रोश में एक अजीब सन्नाटा है। पूरी फिल्म में लहानिया भीखू (ओम पुरी) कुछ नहीं बोलता, लेकिन उसके हावभाव उसके आक्रोश को खुद कह जाते हैं। लहानिया भीखू अपनी पत्नी की हत्या का आरोपी होता है। हालांकि, भीखू और उसके वकील को पता होता है कि दबंग जमीदारों ने उसकी पत्नी का बलात्कार उसे मार दिया है, मगर कोर्ट को तो सबूत चाहिए। आपबीती सुनाने खुद भीखू की बहन आती है, मगर वहीं कुल्हाड़ी से वार करके भीखू उसे मार देता है। इस तरह डर और अशुरक्षा की भावना के चलते भीखू के सारे आक्रोश महज एक दुर्घटना बनकर समाप्त हो जाते हैं। ऑनर किलिंग जैसे गंभीर मुद्दे पर बनी प्रियदर्शन की आक्रोश 1980 वाली आक्रोश की तरह दुर्घटना नहीं होगी, ऐसा ट्रेलर कहा जा सकता है। कौन है गुनहगार? अक्षय खन्ना के इस सवाल पर चेहरे पर झुर्रियां पड़ीं एक बूढ़े की तमतमाती आवाज कि तुम हो गुनहगार... तुमने सब किया है, हमें आश्वस्त करती है कि यह आक्रोश पूरे शिद्दत के साथ युवा वर्ग को झकझोरने का काम करेगी। यूं, अजय देवगन और अक्षय खन्ना के साथ बिपाशा बसु, राइमा सेन, अमिता पाठक और परेश रावल जैसे कलाकार हैं तो मनोरंजन की गुंजाइश तो है ही।