Thursday, April 7, 2016
Wednesday, May 11, 2011
A Simple Observation....
I am not going to write the movie review or something which you expect. It’s just a simple observation about the relationships in reference to Latin American (Spanish speaking countries), western (Specially U.S.) and Asian countries specially
We must know that in western countries, there is not much value given to relations, be it parent-child, husband-wife, girlfriend-boyfriend or any other. There, much focus is given to oneself and one’s priorities. If you are not happy with someone or something, you have every right to leave that person or thing behind and move on. And that is considered their right, rather culturally approved right. You don’t explore much about the possibilities of mending the ways to work that relationship again. You just know a culturally tested formula i.e. leave the person or thing you are bothered about. And you follow it.
Thursday, April 14, 2011
अन्ना के बहाने
Tuesday, November 2, 2010
सड़कें ख़ाली करो कि ओबामा आते हैं!
गलियाँ बुहारी जा रही हैं दिन में चार बार...
और हमसे कहा गया- सड़कें ख़ाली करो कि ओबामा आते हैं!
कहा गया कि शोर मत करना उस दरमियां
जब वे हों दिल्ली में...
हमसे कहा गया कि दो दिन के लिए तो घर से बहार भी मत निकलना
हो सके तो रोक लेना टट्टी-पिसाप भी
बगल वाले मंदिर में न बजाए कोई घंटियाँ
मस्जिद में अजान भी न पढ़े कोई...
रिक्शा और ताँगे वालों को तो ख़ास हिदायत है-
न निकलना दिन में धंधा करने- त्यौहार के मौसम में भी
हो सके तो चले जाओ दो-चार के लिए दिन दिल्ली छोड़ के कहीं और
कहा गया हम सब से कि सभ्य रहना दो- चार दिन के लिए
क्योंकि आ रहा है दुनिया का सबसे सभ्य आदमी
यानी अमेरिका का राष्ट्रपति बराक ओबामा!
Monday, October 4, 2010
तीसरे दिन की रामलीला
मित्र का बारंबार आग्रह
हम भी पहुंचे देखने
खूब भीड़भाड़, चहल-पहल
हर आयु-वर्ग के लोग पहुंचे थे-आज-
तीसरा दिन था-
मंचन था राम वनवास।
पहला दृश्य:
पत्नी सीता को समझा रहे थे प्रभु श्रीराम-
बोले- 'सीते! तुम मत कष्ट सहो...
तुम मत जाओ मेरे साथ' प्रत्युत्तर-
'मैंने तो पहले ही कर लिया है निर्णय
नहीं जाऊंगी आपके साथ वन को
आप ठहरे मर्यादापुरुषोत्तम, आज्ञाकारी
निभाओ वचन पिता का
मैं क्यों कर जाऊं...
मेरे वश की नहीं यह तपस्या
जंगल भी कोई रहने की जगह है?'
दर्शक हतप्रभ, संयोजक परेशान
आखिर हो क्या रहा है ये
सीता को समझाया गया-
'तुम्हारे वन गये बगैर कैसे होगा तुम्हारा हरण
और कैसे होगा राम-रावण युद्ध, रावण मरण
यह नाटक बंद करो और फौरन जाओ वन राम के साथ।'
जैसे-तैसे तैयार हुईं सीता
अब लक्ष्मण की न-नुकुर
आखिरकार समझा लिया गया उन्हें भी- तर्कों के सहारे।
निकल पड़े वन को तीनों
माताएं रो-रो कर हैरान तीनों
कैकेई को भी पहली बार रोते देखा इस रामलीला में।
दूसरा दृश्य:
गंगा तट पर बैठा था केवट निराश
आज मंदा था धंधा
देखते ही लपका-
'आओ जी, दो मिनट में पहुंचा देता हूं उस पार'
और शीघ्र ही तीनों पहुंचे गंगा पार
केवट से व्यथा सुनाई राम ने
मगर अड़ गया वह भी-
'माफ करो प्रभु
मेरे भी हैं बाल-बच्चे
सबका भरना पड़ता है पेट मुझे ही
साग-सब्जी भी ले जाना है शाम को
...फिर क्यों मूर्ख बनाते हो हम जैसों को
पढ़े-लिखे नहीं, इसलिए?
सब जानता हूं मैं
राजकुमार हो अयोध्या के
सदियों की कमाई रखी है खजाने में
मेरी मजदूरी के लिए इतनी मजबूरी!
फिर कोई खैरात तो नहीं मांगता...
जैसे भी हो, आप ही निकालो रास्ता'
...और अंत में देनी पड़ी अंगूठी सीता की ही
(दर्शकों की गालियां केवट को)
इस बार निषाद भी नहीं पहुंचा आवभगत करने राम की
दिन थे खेती-किसानी के।
किसी तरह रहने लगे चित्रकूट में
राम-लक्ष्मण-सीता पर्णकुटी में।
दृश्य तीन :
कुटिया पर पहुंची सूर्पणखा
विवाह का प्रस्ताव और राम-लक्ष्मण की समझाइश
बात यहां तक पहुंची कि काट ली जाय नाक इसकी
क्रोधित लक्ष्मण तैयार, मगर....
तभी आ धमाका लंकेश यानी रावण
बिना पोशाक के ही मंच पर
अब बंद होना चाहिए प्रतिशोध का यह अत्याचार...'
पूरे पंडाल में सन्नाटा, दर्शकों में खामोशी
और संयोजक तो पसीना-पसीना
कोसने लगा रावण को-
'क्यो आ धमके तुम मंच पर समय से पहले?'
रावण के इरादे भी थे खतरनाक
अड़ गया संयोजक से ही-
'सब तुम्हीं लोग कराते हो पैसे की खातिर-
कब तक... आखिर कब तक कटती रहेगी सूपर्णखा की नाक
और होता रहेगा सीता का हरण?'
मंच का माहौल था गरम
दर्शक उठ-उठकर लगे थे जाने
Saturday, September 18, 2010
सठिया गए हैं शिवराज सिंह
Sunday, September 12, 2010
वेल डन दिग्गी
Tuesday, September 7, 2010
सुरिजभान काकू आ रहा हूं आपसे मिलने
दरअसल, वाचिक परंपरा वाले इस मुल्क में लोककवियों और लोक कलाकारों की जीते जी कोई पूछ-परख नहीं होती, जबकि इनका आलोक तथाकथित किसी भी भद्र कवि-कलाकार से कम नहीं होता। दूर ग्रामीण अंचलों में ये गुमनामी की जिंदगी जी रहे होते हैं। बानगी के तौर पर अपने सुरिजभान काकू को लीजिए। सुरिजभान काकू का मूल नाम है सूर्यभान सिंह। जैसा कि बोलियों के साथ होता है, सूर्यभान का देशज बन गया सुरिजभान। जिस तरह से शहरों में हर चालीस पार शख्स को लोग अंकल कहने लगते हैं, उसी तरह गांवों में बुजुर्ग लोगों को लोगबाग काका कहते हैं, चाहे वह किसी जाति-धर्म का हो। काका से काकू भी वैसे ही बना, जैसे चाचा से चाचू या मामा से मामू।
सतना क्षेत्र में जो बोली बोली जाती है, वह विशुद्ध बघेली नहीं बोली जाती, उसमें बघेली और बुंदेली का घालमेल है और यही बोली है अपने सुरिजभान काकू की। इंदिरा गांधी के समय की इमरजेंसी से लेकर हाल-फिलहाल में केंद्र की मनमोहन और राज्य की शिवराज सरकार के कामकाज पर जो दोहे-कुंडलिया रचते हैं, मजाल है कि स्थापित कवि उन गहराइयों तक पहुंचें !! सरकारी कामकाज के झोल की बात हो, सरकारी उपलब्धियों की बात हो, लालफीताशाही हो, पंचायत के पंच-सरपंचों के चाल-चलन और कामकाज की बात हो, सब एक सांस में सुना देते हैं। क्या दोहे गढ़े थे सरकार की नरेगा योजना और शिक्षाकर्मी योजना पर!! मेरा साल में एकाध बार ही गांव जाना होता है और कहीं अगर सुरिजभान काकू से मुलाकात हो गई तो पूरे साल भर के राजनीतिक-सामाजिक घटनाक्रम की जानकारी उनके दोहों-कुंडलियों के जरिए मिल जाती है। अपने काकू को रागों की भी गहरी समझ है। पारंपरिक सोहर-बिआह से लेकर कजरी, दादरा और टप्पा तक और अनूप जलोटा के भजनों से लेकर मुंबइया धुनों की थिरकन उनके लोकगीतों के अंग हैं। सच तो यह है कि सुरिजभान काकू क्या हैं, इस शब्दों मात्र में कहा ही नहीं जा सकता। अपुन को लगता है उन्हें जानने के लिए एक बार उनसे मिलना मांगता है। आप उनसे मिलिए, उनकी जानकारी का कोई विषय बताइए, पांच मिनट उन्हें समय दीजिए और वहीं खड़े-खड़े उस घटना-परिघटना या संबंधित विषय पर दोहा-गीत सुन लीजिए। अब तो काकू के घर भी ट्रैक्टर आ गया है, वरना आज से चार-पांच साल पहले जब अपनी बैलगाड़ी में होते थे तो उनकी स्वरचित फाग और बिरहा सुनते ही बनते थे। चौका-बासन, चना-चबेना, भाजी-रोटी, खेत-खलिहान सब कुछ आपको सुरिजभान काकू की कविता में मिलेगा।